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श्री सिद्धचक्र विधान
विकलप नय सकल प्रमाण, वस्तु भेद जानो स्वज्ञान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहं सकलवस्तुविज्ञात्रे नमः अयं ॥८२५॥ सब पदार्थ दर्शत तुम बैन, संशय हरण करण सुख चैन। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ षोडशपदार्थवादिने नमः अर्घ्यं ॥८२६॥ वर्णन करि पञ्चास्तिजुकाय, भव्य जीव संशय विनशाय। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
___ ॐ हीं अहँ पञ्चास्तिकायबोधकजिनाय नमः अयं ॥८२७॥ प्रतिबिम्बत हो आरसि माहि, ज्ञानाध्यक्ष जान हो ताहि। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ ज्ञानाध्यक्षजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८२८॥ जामें ज्ञान जीव को एक, सो परकाशो शुद्ध विवेक। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ समवायसार्थकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८२९॥ भक्तनि के हो साध्य सुकर्म, अन्तिम पौरुष साध्य सुशर्म। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ भत्तैकसाधकधर्माय नमः अर्घ्यं ॥८३०॥ बाकी रहो न गुण शुभ एक, ताको स्वाद न हो प्रत्येक। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहं निरवशेषगुणामृताय नमः अयं ॥८३१ ॥ नय सुपक्ष करि सांख्य कुवाद, तुम निरवाद पक्ष कर वाद। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ सांख्यादिपक्षविध्वंसकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८३२॥