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श्री सिद्धचक्र विधान
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में सुख सम्पति
ही अहं निराश्रवा
चौ अनी
वीतराग सर्वज्ञ सु देव, सत्यवाक वक्ता स्वयमेव। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ सत्यवक्त्रे नमः अयं ॥८१७॥ मन-वच-काय जोग परिहार, कर्मवर्गणा नाहिं लगार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहं निराश्रवाय नमः अयं ॥८१८॥ चौ अनुयोग कियो उपदेश, भव्य जीव सुख लहत हमेश। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहं चतुर्भूमिकशासनाय नमः अयं ॥८१९॥ काहू पदसों मेल न होय, अन्वय रूप कहावै सोय। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
... ॐ ह्रीं अहँ अन्वयाय नमः अर्घ्यं ॥८२०॥ हो समाधि मैं नित लवलीन, बिन आश्रय नित ही स्वाधीन। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह समाधिनिमग्नजिनाय नमः अयं ॥८२१॥ लोक भाल हो तिलक अनूप, हो लोकोत्तम शेष स्वरूप। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह लोकभालतिलकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८२२ ॥ अक्षाधीन हीन है शक्त, तिसको नाश करा निज व्यक्त। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ तुच्छभावभिदे नमः अयं ॥८२३ ॥ जीवादिक द्रव्य षट् सुजान, तिनको भली भान्ति है ज्ञान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह षद्रव्यदृशे नमः अयं ॥८२४॥