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श्री सिद्धचक्र विधान
दूजो तुम सम नहीं भगवान, धर्माधर्म रीति बतलान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
___ॐ ह्रीं अर्ह अद्वितीयबोधजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८०९॥ महादुःखी संसारी जान, तिन के पालक हो भगवान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ लोकपालाय नमः अयं ॥८१०॥ जग विभूति निर इच्छुक होय, मान रहित आतम रत सोय। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह आत्मरसरतजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८११॥ ज्यों शशि ताप हरै अनिवार, अतिशय सहित शान्ति करतार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ शान्तिदात्रे नमः अयं ॥८१२ ॥ हो निरभेद अछेद अशेष, सब इकसार स्वयं परदेश। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
__ ॐ ह्रीं अहं अभेद्याछेद्यजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८१३॥ मायाकृत सम पाँचो काय, निजसों भिन्न लखो मत भाय। सिद्धसमूह जगूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ पञ्चस्कन्धमयात्मदृशे नमः अर्घ्यं ॥८१४॥ बीती बात देख संसार, भवतन भोग विरक्त उदार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ भूतार्थभावनासिद्धाय नमः अर्घ्यं ॥८१५ ॥ धर्माधर्म जान सब ठीक, मोक्षपुरी दिखलायो लीक। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ चतुराननजिनाय नमः अयं ॥८१६ ॥