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श्री सिद्धचक्र विधान
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जन्म-मरण को आदि ले, जग में क्लेश महान। तिसके हन्ता हो प्रभू, भोगत सुख निर्वाण॥
___ॐ ह्रीं अहँ सर्वक्लेशापहाय नमः अर्घ्यं ॥६९०॥ ध्रुव स्वरूप थिर हैं सदा, कभी अन्त नहिं होय। अव्याबाध विराजते, पर सहाय को खोय॥
ॐ ह्रीं अहँ ध्रौव्यरूपजिनाय नमः अयं ॥६९१॥ व्यय उत्पाद सुभाव हैं, ताको गौण कराय। अचल अनन्त स्वभाव में, तीनलोक सुखदाय॥ ॐ ह्रीं अहँ अक्षयअनंतस्वभावात्मकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥६९२ ॥ स्व ज्ञानादि चतुष्ट पद, हृदे माह विकसाय। सोहत हैं शुभ चिह्न करि, भवि आनन्द कराय॥
ॐ ह्रीं अहँ श्रीवत्सलांछनाय नमः अर्घ्यं ॥६९३ ॥ धर्म रीति परगट कियो, युग की आदि मझार। भविजन पोषे सुख सहित, आदि धर्म अवतार॥
ॐ ह्रीं अहँ आदिब्रह्मणे नमः अर्घ्यं ॥६९४॥ चतुरानन परसिद्ध हैं, दर्श होय चहुँ ओर। चउ अनुयोग बखानते, सब दुःख नाशौ मोर।
ॐ ह्रीं अहँ चतुर्मुखाय नमः अर्घ्यं ॥६९५ ॥ जगत जीव कल्याणा कर, वृष मर्याद बखान। ब्रह्म ब्रह्म भगवान हो, महामुनी सब मान॥
ॐ ह्रीं अहँ ब्रह्मणे नमः अर्घ्यं ॥६९६ ॥ प्रजापति प्रतिपाल कर, ब्रह्मा विधि करतार। मन्मथ इन्द्री वश करन, बन्दूं सुख आधार॥
ॐ ह्रीं अर्ह विधात्रे नमः अर्घ्यं ॥६९७॥