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श्री सिद्धचक्र विधान
तीन लोक की लक्ष्मी, तुम चरणाम्बुज वास। श्रीपति श्रीधर नाम शुभ, दिव्यासन सुखरास॥
ॐ ह्रीं अहँ कमलासनाय नमः अयं ॥६९८॥ बहुरि न जग में मण हैं, पंचम गति में वास। . नित्य अमरता पाइयो, जरा मृत्यु को नाश॥
- ॐ ह्रीं अर्ह अजन्मिने नमः अर्घ्यं ॥६९९ ॥ पाँच काय पुद्गलमई तामें एक न होय। केवल आत्म प्रदेश ही, तिष्ठत हैं दुःख खोय॥
ॐ ह्रीं अहँ आत्मभुवे नमः अर्घ्यं ॥७००॥ लोक शिखर सुखसों रहैं, ये ही प्रभुता जान। धारत हैं तिहुँलोक में, अधिक प्रभा परधान॥
ॐ ह्रीं अहँ लोकशिखरनिवासिने नमः अर्घ्यं ।।७०१॥ अधिक प्रताप प्रकाश है, मोह तिमिर को नाश। शिवमग दिखलावत सही, सूरजसम प्रतिभास॥ . ॐ ह्रीं अहँ सूरज्येष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥७०२ ॥ प्रजापाल हित धार उर, शुभ मारग बतलाय। सत्यारथ ब्रह्मा क है, तुमरे बन्दूं पाय॥
___ॐ ह्रीं अहँ प्रजापतये नमः अर्घ्यं ॥७०३ ॥ गर्भ समय षट्मास ही, प्रथम इन्द्र हर्षाय। रत्नवृष्टि नित करत हैं, उत्तम गर्भ कहाय॥
ॐ ह्रीं अहँ हिरण्यगर्भाय नमः अर्घ्यं ॥७०४॥ तुमहि चार अनुयोग के, अंग कहै मुनिराय। तुमसों पूरण श्रुत सही, नान्तर मंगल काय॥
ॐ ह्रीं अहँ वेदाङ्गाय नमः अर्घ्यं ॥७०५ ॥