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श्री सिद्धचक्र विधान
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तुम उपदेश थकी कहैं, द्वादशांग गणराज। पूरण ज्ञाता तुम्हीं हो, प्रनमूं मैं शिवकाज॥
____ॐ ह्रीं अहँ पूर्णवेदज्ञाय नमः अर्घ्यं ॥७०६ ॥ पार भये भवसिन्धु के, तथा सुवर्ण समान। उत्तम निर्मल थुति धरै, नमत कर्ममल हान॥ ___ॐ ह्रीं अहँ भवसिन्धुपारगाय नमः अर्घ्यं ॥७०७॥ सुखाभास पर निमिततें, पर उपाधितें होत। स्वतः सुभाव धरो सहि, सत्यानन्द उद्योत ॥
ॐ ह्रीं अर्ह सत्यानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥७०८॥ मोहादिक परबल महा, सो इकसो तुम जीत। औरन की गिनती कहाँ, तिष्ठो सदा अभीत।
. ॐ ह्रीं अहँ अजयाय नमः अर्घ्यं ।७०९॥ दिव्य रत्नमय ज्योति हो, अमित अकंप अडोल। मनवाँछित फलदाय हो, राजत अखय अमोल॥ ____ॐ ह्रीं अहँ मनवांछितफलदाय नमः अर्घ्यं ॥७१०॥ देह धार जीवन मुकत, परमातम भगवान। सूर्य समान सुदीप्तधर, महाऋषीश्वर जान॥
ॐ ह्रीं अहँ जीवनमुक्तजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७११॥ स्व भय आदिक से परे, पर भय आदि निवार। · पर उपाधि बिन नित सुखी, बन्दूं भाव सम्हार॥
ॐ ह्रीं अहँ शतानन्दाय नमः अर्घ्यं ।।७१२॥ ईश्वर हो तिहुँलोक के, परम पुरुष परधान। ज्ञानानन्द स्वलक्ष्मी, भोगत नित अमलान ।
ॐ ह्रीं अहँ विष्णवे नमः अर्घ्यं ॥७१३ ॥