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श्री सिद्धचक्र विधान
स्वप्न प्रमादी जीव के, अल्प-शक्ति सो होय। निज बल अतुल महा धरै, सिद्ध कहावैं सोय॥
ॐ ह्रीं अर्ह अस्वप्नाय नमः अर्घ्यं ॥१०॥ दर्श ज्ञान सुख भोगते, खेद न रञ्चक होय। ' सो अनन्त बल के धनी, सिद्ध नमामी सोय॥
ॐ ह्रीं अहँ निःश्रमाय नमः अयं ॥९१॥ युगपत सब प्रापत भये, जानत हैं सब भेव। संशय बिन आश्चर्य नहीं, नमूं सिद्ध स्वयमेव॥
ॐ ह्रीं अर्ह वीतविस्मयाय नमः अर्घ्यं ॥९२॥ सिद्ध सनातन कालतें, जग में हैं परसिद्ध। तथा जन्म जर नहीं धरै, नमूं जोरि करसिद्ध ॥
ॐ ह्रीं अहँ अजन्मने नमः अर्घ्यं ॥९३ ॥ भ्रम,विन ज्ञान प्रकाश में, भासै जीव अजीव। संशय विन निश्चल सुखी, बन्दूं सिद्ध सदीव॥
. ॐ ह्रीं अहँ निःसंशयाय नमः अर्घ्यं ॥१४॥ तुम पूरण परमातमा, सदा रहो इक सार। जरा न व्यापै तुम विर्षे, नमूं सिद्ध अविकार॥
ॐ ह्रीं अहं निर्जराय नमः अयं ॥१५॥ तुम पूरण परमातमा, अन्त कभी नहिं होय। मरण रहित वन्दूं सदा, देउ अमर पद सोय॥
ॐ ह्रीं अहँ अमराय नमः अयं ॥९६॥. निजानन्द के भोग में, कभी न आरत आय। यातें तुम अरतीत हो, बन्दूं सिद्ध सुहाय॥
ॐ ह्रीं अहँ अरत्यतोताय नमः अर्घ्यं ॥१७॥