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श्री सिद्धचक्र विधान
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एक दृष्टि सब को लखें, इष्ट-अनिष्ट न कोय। - द्वेष अंग व्यापै नहीं, सिद्ध कहावत सोय॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनद्वेषाय नमः अयं ॥२॥ भवसागर के तीर हैं, शिवपुर के हैं राहि। मिथ्यातमहर सूर्य हैं, मैं बन्दूं हूँ ताहि ॥
ॐ ह्रीं अहं निर्मोहाय नमः अयं ॥३॥ जग जनमें हम दोष हैं, सुखी दुःखी बहु भेव। ते सब दोष निवारियो, उत्तम हो स्वयमेव॥
ॐ ह्रीं अहं निर्दोषाय नमः अयं ॥४४॥ जन्म-मरण यह रोग हैं, तिनको कठिन इलाज। परमौषध यह रोग की, बन्दूं मेटन काज॥ . ॐ ह्रीं अहँ अङ्गदाय नमः अयं ॥८५॥
राग कहो ममता कहो, मोह कर्म सों होय। ... सो जिन मोह विनाशियो, नमूं सिद्ध हैं सोय॥
ॐ ह्रीं अहं निर्ममत्वाय नमः अयं ॥८६॥ तृष्णा दुःख को मूल है, सुखी भये तिस नाश। मन-वच-तन करि मैं नमू, हैं आनन्द विलास॥ - ॐ ह्रीं अर्ह वीततृष्णाय नमः अर्घ्यं ॥८७॥
अन्तर बाह्य निरिच्छ हैं, एकी रूप अनूप। निस्पृह परमेश्वर नमू, निजानन्द शिवभूप॥ ... . ॐ ह्रीं अर्ह असङ्गाय नमः अध्यं ॥८॥
क्षायिक समकित को धरै, निर्भय थिरता रूप। निजानन्दसों नहिं चिगें, मैं बन्दू शिवभूप॥
ॐ ह्रीं अर्ह निर्भयाय नमः अयं ॥८९॥