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श्री सिद्धचक्र विधान
रागादिक मल बिन दिपो, शुद्ध सुवर्ण समान। शुद्ध निरञ्जन पद लियो, नमूं चरण धरि ध्यान॥
ॐ ह्रीं अहं निरञ्जनाय नमः अयं ॥४॥ द्रव्य भाव दो विधि करम, नाशि भये शिवराय। बन्दूँ मन-वच-काय कर, भविजन को सुखदाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह कर्मघ्नाय नमः अयं ॥७५ ॥ ज्ञानावरणी आदि ले, चार घातिया कर्म। तिनको अन्त खिपाई के, लियो मोक्षपद पर्म॥
ॐ ह्रीं अहँ घातिकर्मान्तकाय नमः अयं ॥७६॥ . ज्ञानावरणी पटल बिन, ज्ञान दीप्ति परकाश। शुद्ध सिद्ध परमातमा, बन्दत भवदुःख नाश॥
ॐ ह्रीं अहं जिनदीप्तये नमः अयं ॥१७॥ कर्म रुलावे आत्मा, रागादिक उपजाय। तिनको कर्म विनाशकैं, सिद्ध भये सुखदाय॥ . ॐ ह्रीं अहँ कर्ममर्मभिदे नमः अर्घ्यं ॥७८॥ पाप कलाप न लेश हैं, शुद्धाशुद्ध विख्यात। मुनि मन मोहन रूप हैं, नमूं जोरि जुग हाथ॥
-ॐ ह्रीं अहँ अनुदयाय नमः अर्घ्यं ॥७९॥ राग नहीं थुतिकारसों, निन्दकसों नहीं द्वेष। सम सुखिया आनन्द घन, बन्दूं सिद्ध हमेश॥
ॐ ह्रीं अहँ वीतरागाय नमः अयं ॥८॥ क्षुधा वेदनी नाशकर, स्व सुख भुञ्जनहार। निजानन्द सन्तुष्ट हैं, बन्दूं भाव विचार ॥
ॐ ह्रीं अहँ अक्षुधाय नमः अयं ॥८१ ॥