________________
श्री सिद्धचक्र विधान
[२०९
रागादिक रिपु जीत तुम, श्री जिन नाम धराय। सिद्ध भये कर जोरि के, बन्दूं तिनके पाय॥
___ ॐ ह्रीं अहँ श्री जिनाय नमः अयं ॥६६॥ विषय कषाय न लेश है, दृष्टि ज्ञान परिपूर्ण। उत्तम जिन शिवपद लियो, नमत कर्म को चूर्ण॥
ह्रीं अहं जिनोत्तमाय नमः अयं ॥६७॥ चहुँ प्रकार के देवता, नित्य नमावत शीश। तुम देवन के देव हो, नमूं सिद्ध जगदीश॥ - ॐ ह्रीं अहं जिनवृन्दारकाय नमः अर्घ्यं ॥६८॥ जो निज सुख होने न दे, सो सत रिपु है जोय। ऐसे रिपु की जीत के, नमूं सिद्ध जो होय॥ ..... ॐ हीं अहं अरिजिते नमः अयं ॥६९॥ अविनासी अविकार हो, अचल रूप विख्यात। जामें विघ्न न लेश है, नमूं सिद्ध कहलात॥ . ॐ ह्रीं अहं निर्विघ्नाय नमः अयं ॥७० ॥ राग दोष मद मोह अरु, ज्ञानावरण नशाय। शुद्ध निरञ्जन सिद्ध हैं, बन्दूँ तिनके पाय॥ . . ॐ ह्रीं अहँ विरजसे नमः अर्घ्यं ॥१॥ मत्सर भाव दुःखी करत, निजानन्द को घात। सो तुम नाशो छिनक में, सम सुखिया कहलात॥
ॐ ह्रीं अहं निरस्तमत्सराय नमः अर्घ्यं ॥७२॥ । परकृत भाव न लेश हैं, भेद कह्यो नहिं जाय। विनन अगोचर शुद्ध हैं, सिद्ध महा सुखदाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह शुद्धाय नमः अयं ॥७३॥