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श्री सिद्धचक्र विधान
तुम सम और न जगत् मैं, उत्तम श्रेष्ठ कहाय। आप तिरै भवि तार दें, बन्दूं तिन के पाय॥
____ॐ ह्रीं अहँ जिनसत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥५८॥ स्वपर कल्याणक हो प्रभू, पञ्चकल्याणक ईश। श्रीपति शिवशङ्कर नमूं, चरणाम्बुज धरि शीश॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनप्रभवाय नमः अर्घ्यं ॥५९॥ मोह महाबल दलमली, विजय लक्ष्मीनाथ। परमज्योति शिवपद लहो, चरण नमूं धरि माथ॥
ॐ ह्रीं अर्ह परमजिनाय नमः अर्घ्यं ॥६०॥ चहुँ गति दुःख विनाशिया, पूरा निज पुरुषार्थ। नमूं सिद्ध कर जोरिकैं, पाऊँ मैं सर्वार्थ ॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ जिनचहुँगतिदुःखान्तकाय नमः अयं ॥६१॥ जीते कर्म निकृष्ट को, श्रेष्ठ भये जिनदेव। तुमसम और न जगत् में, बन्दूं मैं तिन भेव॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनश्रेष्ठाय नमः अयं ॥२॥ आप मोक्ष मग साधियो, औरन सुलभ कराय। आदि पुरुष तुम जगत् में, धर्म रीति वरताय॥
___ ॐ ह्रीं अहँ जिनज्येष्ठाय नमः अयं ॥६३ ॥ मुख्य पुरुषारथ मोक्ष है, साधत सुखिया होय। मैं बन्दूं तिन भक्ति कर, सिद्ध कहावें सोय॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनमुखाय नमः अयं ॥६४॥ . सुरपत सम अग्रेस हो, निज पर भासनहार। आप तिरें भवि तारियो, बन्दूं योग सम्भार॥
- ॐ ह्रीं अहँ जिनाग्राय नमः अयं ॥६५॥
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