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श्री सिद्धचक्र विधान
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होत नहीं सोच न कभुं ज्ञान धेरै परतक्ष । नमूं सिद्ध परमातमा, पाऊँ ज्ञान अलक्ष ॥ ॐ ह्रीं अर्हं निश्चिताय नमः अर्घ्यं ॥ ९८ ॥ जानत हैं सब ज्ञेयको, पर ज्ञेयन्तै भिन्न । तातें निर्विषयी कहे, लेश न भोगें अन्य ॥ ॐ ह्रीं अर्हं निर्विषयाय नमः अर्घ्यं ॥ ९९ ॥ अहंकार आदिक त्रिषट्, तुम पद निवसैं नाहिं । सिद्ध भये परमात्मा, मैं बन्दू हूँ ताहिं ॥ ॐ ह्रीं अर्हं त्रिषष्ठिजिते नमः अर्घ्यं ॥१००॥ जेते गुण परजाय है, द्रव्य अनन्त सुकाल । तिनको तुम जानो प्रभू, बन्दूं मैं नमि भाल ॥ ॐ ह्रीं अर्हं सर्वज्ञाय नमः अर्घ्यं ॥ १०१ ॥
ज्ञान आरसी तुम विषै, झलकें ज्ञेय अनन्त । सिद्ध भये तिनको नमें, तीनों काल सु सन्त ॥
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ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविदे नमः अर्घ्यं ॥ १०२ ॥ चक्षु अचक्षु न भेद हैं, समदर्शी भगवान । नमूं सिद्ध परमातमा, तीनों योग प्रधान ॥ ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदर्शिवे नमः अर्घ्यं ॥ १०३ ॥ देखन कछु बाकी नहीं, तीनों काल मझार । सर्वालोकी सिद्ध हैं, नमूं त्रियोग सम्हार ॥
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वावलोकाय नमः अर्घ्यं ॥ १०४ ॥ तुम सम पराक्रम और सब, जगवासी में नाहिं । निजबल शिवपद साधियों, मैं बन्दू हूँ ताहि ॥ ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तविक्रमाय नमः अर्घ्यं ॥ १०५ ॥