________________
२१४]
श्री सिद्धचक्र विधान
निजसुख भोगत नहीं चिगें, वीर्य अनन्त धराय। तुम अनन्त बल के धनी, बन्दूं मन-वच-काय॥
ॐ ह्रीं अहँ अनन्तवीर्याय नमः अर्घ्यं ॥१०६॥ सुखाभास जग जीव के, पर निमित्त से होय। निज आश्रय पूरण सुखी, सिद्ध कहावैं सोय॥ _ ॐ ह्रीं अहँ अनन्तसुखाय नमः अर्घ्यं ॥१०७॥ . निज सुख में सुख होत है, परसुख में सुख नाहिं। सो तुम निज सुख के धनी, मैं बन्दूं हूँ ताहि ॥
ह्रीं अहँ अनन्तसौख्याय नमः अर्घ्यं ॥१०८॥ तीनलोक तिहुँकालके धनी, गुणपर्ययकछु नाहिं। जाको तुम जानो नहीं, ज्ञान भानु के माहिं॥
ॐ ह्रीं अहँ विश्वज्ञानाय नमः अर्घ्यं १०९॥ द्रव्य तथा गुण पर्य को, देखें एकीबार। विश्व दर्श तुम नाम है, बन्दों भक्ति विचार ॥
ॐ ह्रीं अहँ विश्वदर्शिने नमः अर्घ्यं ॥११०॥ सम्पूरण अवलोकतें, दर्शन धरो अपार । नमूं सिद्ध कर जोरिके, करो जगत सै पार॥
ॐ ह्रीं अहँ अखिलार्थदर्शिने नमः अर्घ्यं ॥१११ ॥ इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष है, क्रमवर्ती कहलाय। बिन इन्द्रिय प्रत्यक्ष है, धरो ज्ञान सुखदाय॥
ॐ ह्रीं अहँ निअक्षदृशे नमः अर्घ्यं ॥११२॥ विश्व मांहि तुम अर्थ सब, देखों एकीबार। विश्व चक्षु तुम नाम है, बन्दूं भक्ति विचार॥
ॐ ह्रीं अहँ विश्वचक्षुषे नमः अर्घ्यं ॥११३ ॥