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श्री सिद्धचक्र विधान
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तीन लोक के अर्थ जे, बाकी रहे न शेष। . युगपत तुम सब जानियो, गुण पर्याय विशेष ॥
ॐ ह्रीं अर्ह अशेषविदे नमः अर्घ्यं ॥११४॥ पराधीन अरु विघ्न बिन, है साँचा आनन्द। सो शिवगति में तुम लियो, मैं बन्दू सुखकन्द॥
ॐ ह्रीं अहँ आनन्दाय नमः अयं ॥११५॥ सत प्रशंसता नित्य है, या सद्भाव सरूप। सो तुम में आनन्द है, बन्दत हूँ शिवभूप॥
ह्रीं अर्ह सदानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥११६॥ उदय महा सत् रूप है, जामें असत् न होय। अन्तराय अरु विघन बिन, सत्य उदै है सोय॥
____ॐ ह्रीं अहं सदोदयाय नमः अर्घ्यं ॥११७॥ नित्यानन्द महासुखी, हीनाधिक नहीं होय। नहीं गत्यन्तर रूप हो, शिवगति में है सोय॥
ॐ ह्रीं अहँ नित्यानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥११८॥ जासों परे न और सुख, अहमिन्द्रन में नाहिं। सोई श्रेष्ठ सुख भोगते, बन्दूं हूँ मैं ताहि॥ ____ॐ ह्रीं अहँ परमआनन्दाय नमः अर्घ्यं ॥११९॥ पूरण सुख की हद धरै, सो महान आनन्द। . सो तुम पायो शिव-धनी, बन्दूं पद अरविन्द ॥
_ॐ ह्रीं अहँ महानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥१२०॥ उत्तम सुख स्वाधीन है, परम नाम कहलाय। चारों गति में सो नहीं, तुम पायो सुखदाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह परमानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥१२१ ॥