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श्री सिद्धचक्र विधान
___ अडिल्ल छन्द समारंभ परिवर्तमान युत मन धरे,
विकलपमई उपकरण विविध इकठे करे। महा कष्ट को हेत भाव यह ना गहो, .
प्रणमूं सिद्ध अनन्त सुखातम गुण लहो॥ ॐ हीं अकृतमनोमातसमारम्भसुखात्मगुणाय नमः अर्घ्यं ॥३५॥ मान सहित मनयोग द्वार चिंतवन करें,
समारंभ पर-कृत्य करावन विधि वरैं। तहाँ कष्ट को हेत भात यह ना गहो,
प्रणमूं सिद्ध अनन्य गुणातम पद लहौ। ॐ ह्रीं अकारितमनोमानसमारम्भअनन्यगताय नमः अयं ॥३६॥ . जोडे चित न समाज विविध जिस काज में,
समारंभ तिस नामसो मति जिनराज में। माने मानी मन आनन्द सु निमित्त से,
नमूं सिद्ध हैं अतुल वीर्य त्यागत तिसे॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमनोमानसमारम्भअनन्तवीर्याय नमः अयं ॥३७॥ अशुभ काज परिवर्त नाम आरंभ को,
मान सहित मन द्वार तास उद्यम गहो। जगवासी जिय नितप्रति पाप उपाय हैं,
णमो सिद्ध या रहित अतुल सुखराय हैं। ॐ ह्रीं अकृतमनोमानारम्भअनन्तसुखाय नमः अर्घ्यं ॥३८॥