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श्री सिद्धचक्र विधान
___छन्द त्रोटक तनभार भए निज घात ठने, तिसकी कछु विधि ऐसी जुबने। अपघातसुकर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भएतसुमूल हनो॥
ॐ ह्रीं अपघातकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥११८॥ विष आदि अनेक उपाधि धरै, पर प्राणनि को निर्मूल करै। परघातिसुकर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भएतसुमूलहनो॥
ॐ ह्रीं परघातकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥११९॥ .. अति तेजमई परदीप्त महा, रवि बिम्ब विर्षे जिय भूमि लहा। यह आतप कर्म सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भए तसुमूलहनो॥ ॐ ह्रीं अतितेजमयीआतापनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१२० ॥ परकासमई जिम बिम्ब शशी, पृथिवी जिय पावत देह इसी। द्युतिनामसुकर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्यभएतसुमूलहनो॥ ___ ॐ ह्रीं उद्योतनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१२१॥ . तन की थिति कारण श्वास गहै, स्वर अन्तर बाहर भेद वहै। यह श्वास सुकर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भए तसुमूलहनो॥
ॐ ह्रीं श्वासकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१२२ ॥ शुभचालचलें अपनी जिसनें,शशिज्योंनभसोहत हैं तिसतें। नभ में गति कर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भयेतसुमूलहनो॥
ॐ ह्रीं विहायोगतिनामकर्मविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१२३॥ इक इन्द्रिय जात विरोध मई, चतुरान्ति सुभावक प्राप्त भई। सनामसुकर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भएतसुमूलहनो॥
ॐ ह्रीं त्रसनामकर्मविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१२४॥