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श्री सिद्धचक्र विधान
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इक इन्द्री जातहि पावत हैं, अरु शेष न ताहि धरावत हैं। यह थावर कर्म सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भए तसुमूलहनो॥
ॐ ह्रीं थावरनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१२५॥ पर में परवेश न आप करें, पर को निज में नहिं थाप धरै। यह बादर कर्म सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भएतसुमूलहनो॥
ॐ ह्रीं बादरनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१२६ ॥ जलसों दवसों नहीं आप मरै, सब ठौर रहै पर की न हरै। यह सूक्ष्म कर्म सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भए तसुमूल हनो॥ ___ ॐ ह्रीं सूक्ष्मनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१२॥ जिसने परिपूरणता करि है, निज शक्ति समान उदय धरि है। पर्याप्त सुकर्म सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भए तसु मूल हनो॥ ___ॐ ह्रीं पर्यापकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१२८॥ परिपूरणता नहिं धार सके, यह होत सभी साधारण के। अपरर्याप्ति कर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भएतसुमूलहनो॥ ___ॐ ह्रीं अपर्याप्तकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१२९॥ जिम लोह न भार धरै तन में, जम आकन फूल उड़े वन में। अगुरु लघुकर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भएतसुमूलहनो॥
ॐ ह्रीं अगुरुलघुनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१३०॥ इक देह विर्षे इक जीव रहै, इकलो जिसको सब भोग लहै। परतेक सुकर्म सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भए तसुमूल हनो॥ ___ॐ ह्रीं प्रत्येकनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१३१॥ इक देह विर्षे बहु जीव रहैं, इक साथ सभी तिस भोग लहैं। इह भेद निगोद सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भए तसुमूलहनो॥ ___ ॐ ह्रीं साधारणनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१३२॥