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श्री सिद्धचक्र विधान
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तुम ध्यावत शाश्वत व्याधि दहै, तुम पूजत ही पद पूजि लहै। शरणागत सन्त उभारन हो, सब सिद्ध नमों सुखकारण हो॥
दोहा सिद्धवर्ग गुण अगम है, शेष न पावै पार । हम किंह विधि वरणन करैं भक्ति भाव उर धार ॥९॥
ॐ ह्रीं अनन्तदर्शनज्ञानादि षोडशगुणसंयुक्तसिद्धेभ्यो महायँ । इति द्वितीय पूजा सम्पूर्णम्। ___'ॐ ह्रीं अहँ अ सि आ उ सा नमः' मंत्र का यहाँ १०८ बार जाप करें।
अथ तृतीय पूजा बतीस गुण सहित
छप्पय छन्द ऊरध अधो सुरेफ हिन्दु हकार बिराजे । अकरादि स्वर लिप्तकर्णिका अन्त सु छाजे ॥ वर्गन पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व संधिवर । अग्रभाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ फुनि अंत ह्रीं वेड्यो परम सुर, ध्यावत अरिनागको। के हरिसम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो॥१॥ ___ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धपरमेष्ठिनः बत्तीस गुणसहित विराजमान अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं! .