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श्री सिद्धचक्र विधान
ना काहूँसो जन्म हो, ना काहूँसो नाश। स्वयंसिद्ध बिन पर निमित्त, स्वयंस्वरूप प्रकाश॥
___ॐ ह्रीं अहँ अकृत्रिमाय नमः अर्घ्यं ॥९५२॥ अप्रमाण अत्यन्त है, तुम सन्मति परकाश। तेजरूप उत्सवमई, पाप-तिमिर को नाश॥
ॐ ह्रीं अहँ अमेयमहिम्ने नमः अर्घ्यं ॥९५३॥ रागादिक मल को हरै, तनक नहीं अनवास। महाविशुद्ध अत्यन्त हैं, हरो पाप-अहि-डाँस॥
ॐ ह्रीं अर्ह अत्यन्तशुद्धाय नमः अर्घ्यं ॥९५४॥ स्वयं सिद्ध भरतार हो, शिव कामिनी के संग। रमण भाव निज योग में, मानो अति आनन्द।
___ॐ ह्रीं अहँ सिद्धिस्वयंवराय नमः अर्घ्यं ॥९५५ ॥ विविध प्रकार न धरत हैं, हैं अजन्म अव्यक्त। . सक्षम सिद्ध समान हैं, स्वयं स्वभाव सुव्यक्त।
ॐ ह्रीं अहँ सिद्धानुजाय नमः अर्घ्यं ॥९५६ ॥ मोक्षरूप शुभ वास के, आप मार्ग निरखेद। भविजन सुलभ गमन करें, जगत वास को छेद ॥
ॐ ह्रीं अहं शिवपुरीपंथाय नमः अर्घ्यं ॥९५७॥ गुणसमूह अत्यन्त है, कोई न पावै पार। थकित रहे श्रुतकेवली, निजबल कथन अगार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ अनन्तगुणसमूहजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९५८ ॥ इक अवगाह प्रदेश में, हो अवगाह अनन्त। पर उपाधि निग्रह कियो, मुख्य प्रधान अनन्त ॥ ॐ ह्रीं अहँ परउपाधिनिग्रहकारकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९५९ ॥