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श्री सिद्धचक्र विधान
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स्वयं सिद्ध निज वस्तु हो, आगम इन्द्रिय ज्ञान। कर्तादिक लक्षण नहीं, स्वयं स्वभाव प्रमान॥
ॐ ह्रीं अहँ स्वयंसिद्धजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९६०॥ हो प्रछन्न इन्द्रिय अगम, प्रगट न जाने कोश। सकलअगुणकोलय कियो, निजआसमसेखोय॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ इन्द्रियागम्यजिनाय नमः अयं ॥९६१ ॥ निज गुण करि विज पोषियो, सकल क्षुद्रता त्याग। पूरण निजपद पाय करि, तिष्ठत हो बड़भाग॥
ॐ ह्रीं अहं पुष्टाय नमः अर्घ्यं ॥९६२॥ ब्रह्मचर्य पूरण धरै, निजपद समता धार। सहस अठारह भेद करि, शील सुभाव सुसार॥
ॐ ह्रीं अहँ अष्टादशसहस्रशीलेश्वराय नमः अयं ॥९६३ ॥ महा पुण्य शिवपदकमल, ताके दल विकसान। मुनि मन भ्रमर रमण सुथल, गन्धानन्द महान॥
. ॐ ह्रीं अर्ह पुण्यसंकुलाय नमः अर्घ्यं ॥९६४॥ मति श्रुत अवधि विज्ञान युत, स्वयं बुद्ध भगवान। कृतयुग में मुनि व्रत धरो, शिवसाधक परधान॥ __ॐ ह्रीं अहं व्रताग्रयुयाय नमः अर्घ्यं ॥९६५ ॥ परम शुक्ल शुभ ध्यान में, तुम सेवन हितकार। सन्त उपासक आपके, कर्मबन्ध छुटकार॥ ___ॐ ह्रीं अहँ परमशुक्लध्यानिने नमः अर्घ्यं ॥९६६ ॥ खारवारि इस जलधि को, शी कियो तुम अन्त। गोखुरकार उलंघियो, धरो स्वभुज बलवन्त॥
ॐ ह्रीं अहँ संसारसमुद्रतारकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९६७॥