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श्री सिद्धचक्र विधान
एक समय में गमन कर, कियो शिवालय वास। काल अनन्त अचल रहो, मेटो जग भ्रम त्रास ॥
ॐ ह्रीं अहँ क्षेपिष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥९६८॥ पञ्चाक्षर लघु जाप में, जितना लागे काल। अन्तिम पाया शुक्ल का, ध्याय वसै जग भाल॥
ॐ ह्रीं अहँ पञ्चलघुअक्षरस्थितये नमः अर्घ्यं ॥९६९॥ प्रकृति त्रयोदश शेष हैं, जबतक मोक्ष न होय। सब प्रकृति स्थित मेटकें, पहुँचे शिवपुर सोय॥
ह्रीं अहँ त्रयोदशप्रकृति नमः अर्घ्यं ॥९७०॥ . . तेरह विधि चारित्र के, तुम हो पूरण शूर। निज पुरुषारथ करि लियो, शिवपुर आनन्द पूर॥ ___ॐ ह्रीं अहँ त्रयोदशचारित्रपूर्णाय नमः अयं ॥९७१ ॥ निज सुख में अन्तर नहीं, परसों हानि न होय। स्वस्थरूप परदेश जिन, तिन पूजत हूँ सोय॥ . ॐ ह्रीं अर्ह अछेद्याभेद्यजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९७२ ॥ निज पूजनतें देत हो, शिव सम्पति अधिकाय। यातें पूजन योग्य हो, पूनँ मन-वच-काय॥
ॐ ह्रीं अहँ शिवदातृजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९७३ ॥ मोह महा परचण्ड बल, सकै न तुमको जीत। नमूं तुम्हें जयवन्त हो, धार सु उर में प्रीति॥
ॐ ह्रीं अहँ अजयजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९७४ ।। यज्ञ विधान में जजत ही, आप मिले निधि रूप। 'तुम समान नहीं और धन, हरत दरिद दूःख कूप॥
ॐ ह्रीं अहँ याज्याय नमः अर्घ्यं ॥९७५ ॥