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श्री सिद्धचक्र विधान
ज्यू सूरज मध्याह्न में, दिपै अनन्त प्रभाव। त्यों तुम ज्ञानकला दिपै, मिथ्या तिमिर अभाव॥
ॐ ह्रीं अहँ भास्वते नमः अर्घ्यं ॥२३४॥ चहुँ विधि देवन में सदा, तुम सम देंव न आन। निजानन्द में केलिकर, पूजत हूँ धरि ध्यान॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अद्भुतदेवाय नमः अर्घ्यं ॥२३५ ॥ विश्व ज्ञान युगपद धरै, ज्यूँ दर्पन आकार। स्वपर प्रकाशक हो सही, नमूं भक्ति उर धार॥
ह्रीं अहँ विश्वज्ञात्रीसम्भृते नमः अर्घ्यं ॥२३६॥ . सत स्वरूप सत ज्ञान हैं, तुम ही पूज्य प्रधान। पूजत हैं नित विश्वजन, देव मान परमान॥
ॐ ह्रीं अर्ह विश्वदेवाय नमः अर्घ्यं ॥२३७॥ सृष्टी को सुख करत हो, हरण दुक्ख भववास। मोक्ष लक्षमी देत हो, जन्म-जरा-मृत नास॥ - ॐ ह्रीं अहँ सृष्टिनिर्वृत्ताय नमः अर्घ्यं ॥२३८॥ इन्द्र सहस लोचन किये, निरखत रूप अपार। मोक्ष लहै सो नेमतें, मैं पूनँ निरधार ॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ सहस्त्राक्षदृगोत्सवाय नमः अर्घ्यं ॥२३९ ॥ सम्पूरण निज शक्ति के, है परताप अनन्त। सो तुम विस्तीरण करो, नमें चरण नित सन्त॥
ॐ ह्रीं अहँ सर्वशक्तये नमः अर्घ्यं ॥२४० ॥ ऐरावत पर आरूढ़ हैं, देव नृत्यता मांड। पूजत हैं सो भक्तिसों, मेटि भवार्णव हांड॥
ॐ ह्रीं अहँ देवैरावतारीनाय नमः अर्घ्यं ॥२४१ ॥