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श्री सिद्धचक्र विधान
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सुरनर चारण मुनि जजैं, सुलभ गमन आकाश। परिपूरण हर्षात हैं, पूरै मन की आश॥ ॐ ह्रीं अहँ हर्षाकुलामरखगचारणार्षिमतोत्सवाय नमः अयं ॥२४२ ॥ रक्षक हो षट् काय के, शरणागति प्रतिपाल। सर्व व्यापि निज ज्ञानतें, पूजत होंय निहाल॥
ॐ ह्रीं अहं विष्णवे नमः अयं ॥२४३॥ महा उच्च आसन प्रभू, है सुमेर विख्यात। जन्म अभिषेक सुरेन्द्र करि, पूजत मन उमगात॥ ____ॐ ह्रीं अहँ स्नानपीठयितादृराजे नमः अर्घ्यं ॥२४४ ॥ जाकरि तरिए तीर्थसों, मान मुनिगण मान्य। तुमसम कौन जु श्रेष्ठ हैं, असत्यार्थ हैं अन्य। ___ ॐ ह्रीं अर्ह तीर्थसमानदुग्धाब्धये नमः अयं ॥२४५ ॥ लोक स्नान गिलानता, मेटै मैल शरीर। आतम प्रक्षालित कियो, तुम्ही ज्ञान सुनीर॥
ॐ ह्रीं अहँ स्नानम्बुलातवासवाय नमः अयं ॥२४६ ॥ तारण-तरण सुभाव हैं, तीन लोक विख्यात। ज्यूँ सुगन्ध चम्पा कली, गन्धमई कहलात॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ गंधपवित्रितत्रिलोकाय नमः अध्यं ॥२४७॥
सूक्षम तथा स्थूल में, ज्ञान करै परवेश। • जाको तुम जानों नहीं, खाली रहो न देश॥
ॐ ह्रीं अहं वज्रसूचये नमः अध्यं ॥२४८॥ औरन प्रति आनन्द करि, निर्मल शुचि आचार। आप पवित्र भये प्रभू, बन्दूं हूँ युग पाय॥
ॐ ह्रीं अहं शुचिश्रवे नमः अध्यं ॥२४९ ॥