________________
श्री सिद्धचक्र विधान
[७५
मुखसों लार बहै अति भारी, हस्त पाद कम्पत दुःखकारी। प्रचला-प्रचला कर्म विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥
ॐ ह्रीं प्रचलाप्रचलाकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१५॥ सोता हुआ करै सब काजा, प्रगटावै प्राकर्म समाजा। यह स्त्यानगृद्धि विधि नाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ __ॐ ह्रीं स्त्यानगृद्धिकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१६॥ जो पदार्थ हैं इन्द्रीय योग, ते सब वेदे जिय निज जोग। सोई नाम वेदनी होई, नमूं सिद्ध तुम नाशो सोई॥
ॐ ह्रीं वेदनीकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१७॥ रति के उदय भोग सुखकार, भोगै जियशुभ विविध प्रकार। साता भेद वेदनी होय, नमूं सिद्ध तुम नाशो सोय॥ __ॐ ह्रीं सातावेदनीकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८॥ अरति उदय जिय इन्द्री द्वार, विषय भोग वेदे दुःखकार। एही भेद असाता होय, नमूं सिद्ध तुम नाशो सोय॥ ___ॐ ह्रीं असातावेदनीयकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१९॥ ज्यों असावधानी मदपान, करत मोह विधितों सो जान। ताविधिकरि निजलाभनहोय, नमूं सिद्धतुमनाशोसोय॥
ॐ ह्रीं मोहकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२०॥ जाके उदय तत्त्व परतीत, सत्य रूप नहिं हो विपरीत। 'पञ्च भेद मिथ्यात निवार, भये सिद्ध प्रणमूं सुखकार ॥
ॐ ह्रीं मिथ्याकर्मविनाशकाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥२१॥ प्रथमोपशम समकित जब गले, मिथ्या समकित दोनों मिले। मिश्र भेद मिथ्यात निवार, भये सिद्ध प्रणमूं सुखकार॥
ॐ ह्रीं सम्यक्मिथ्यात्वकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२२॥