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श्री सिद्धचक्र विधान
दर्शन में कुछ मल उपजाय, करै सकल नहिं मूल नसाय। सम्यक् प्रकृति मिथ्यात निवार, भये सिद्ध प्रणमूं सुखकार॥
ॐ ह्रीं सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्वरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२३॥ धर्म मार्ग में उपजे रोष, उदय भये मिथ्यात सदोष। यह अनन्त अनुबन्ध निवार, भये सिद्ध प्रणमूं सुखकार॥
ॐ ह्रीं अनन्तानुबन्धीक्रोधकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४॥ देव धर्म गुरुसों अभिमान, उदय भये मिथ्या सरधान। यह अनन्त अनुबन्ध निवार, भये सिद्ध प्रणमूं सुखकार॥ ___ॐ ह्रीं अनन्तानुबन्धीमानकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२५॥ . . छलसों धर्म रीति दलमलै, उदय होय मिथ्या जब चले। यह अनन्त अनुबन्ध निवार, प्रणमूं सिद्ध महासुखकार॥
ॐ ह्रीं अनन्तानुबन्धीमायाकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२६॥ . लोभ उदय निर्मालय दर्व, भक्षे महानिन्द मति सर्व। यह अनन्त अनुबन्ध निवार, भये सिद्ध प्रणमूं सुखकार ॥ ॐ ह्रीं अनन्तानुबन्धीलोभकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२७॥ .
सुन्दरी छन्द क्रोधकरिअणुव्रतनहिंलीजिये,चरितमोहप्रकृतिसुभनीजिए। है अप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नमूं तिन नासियो॥ ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणक्रोधकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२८॥ मान करि अणुव्रत न होकदा, रहे अव्रत युत दर्शन सदा। है अप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नमूं तिन नासियो॥
ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणमानरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२९॥