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श्री सिद्धचक्र विधान
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मुनिजन आदर योग हो, लोक सराहन योग। . सुरनर पशु आनन्द कर, सुभग निजातम भोग॥
___ॐ ह्रीं अहँ जनार्दनाय नमः अर्घ्यं ।।७३८॥ सब देवन के देव हो, महादेव विख्यात। ज्ञानामृत सुखसों खिरै, पीवत भवि सुख पात॥
ॐ ह्रीं अर्ह श्रीकण्ठाय नमः अर्घ्यं ७३९॥ पाप पुञ्ज का नाश करि, धर्म रीति प्रगटाय। तीनलोक के अधिपति, हम पर दया कराय॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ त्रिलोकाधिपशङ्कराय नमः अर्घ्यं ।।७४०॥ .
स्वयं व्यापि निज ज्ञान करि, स्वयं प्रकाश अनूप। . स्वयं भाव परमातमा, बन्दूं स्वयं सरूप॥
ॐ ह्रीं अर्ह स्वयंप्रभवे नमः अर्घ्यं ॥७४१॥ सब देवन के देव हो, महादेव है नाम। स्वपर सुगन्धित रूप हो, तुम पद करूँ प्रणाम।
ॐ ह्रीं अहँ लोकपालाय नमः अर्घ्यं ७४२॥ धर्मध्वजा जग फरहरै, सब जग माने आन । सब जगशीश नमैं चरण, सब जग को सुख दे आन॥
_ॐ ह्रीं अर्ह वृषभकेतवे नमः अर्घ्यं ।।७४३॥ जन्म-जरा-मृत जीतिकैं, निश्चल अव्यय रूप। सुखसों राजत नित्य ही, बन्दूं हूँ शिवभूप॥
ॐ ह्रीं अहँ मृत्युजयाय नमः अर्घ्यं ॥७४४॥ सब इन्द्री मन जीति के, करि दीनो तुम व्यर्थ। स्वयं ज्ञान इन्द्री जग्यो, नमूं सदा शिव अर्थ॥
- ॐ ह्रीं अर्ह विरूपाक्षाय नमः अर्घ्यं ७४५ ॥