________________
२९२]
श्री सिद्धचक्र विधान
सूखे तृण सम जगत की, विभव जान करवास। धरै सरलता जोगमैं, करै पाप को नाश।
ॐ ह्रीं अहँ विष्टरश्रवसे नमः अर्घ्यं ॥७३०॥ श्री कहिये आतम विभव, ताकरि हो शुभ नीक। सोहत सुन्दर बदन करि, सजन चित रमणीक॥ ___ॐ ह्रीं अहँ श्रीवत्सलांछनाय नमः अयं ॥७३१ ॥ सर्वोत्तम अति श्रेष्ठ हैं, जिन सन्मति थुति योग। धर्म मोक्ष मारग कहैं, पूजत सजन लोग।
ॐ ह्रीं अहँ श्रमते नम: अर्घ्यं ॥७३२॥ . अविनाशी अविकार हैं, नहीं चिगे निज भाव। स्वयं सुआश्रय रहत हैं, मैं पूनँ धर चाव॥
ॐ ह्रीं अर्ह अच्युताय नमः अर्घ्यं ७३३॥ नाशौ लौकिक कामना, निर इच्छुक योगीश। नारि श्रृंगार न मन बसै, वन्दत हूँ लोकीश॥ - ॐ ह्रीं अहँ नरकान्तकाय नमः अर्घ्यं ॥७३४॥ व्यापक लोकालोक में, विष्णुरूप भगवान। धर्मरूप तरु लहत है, पूजत हूँ धर ध्यान॥
ॐ ह्रीं अहँ विश्वसेनाय नमः अर्घ्यं ७३५ ॥ धर्म चक्र सन्मुख चलै, मिथ्यामति रिपु घात। तीन लोक नायक प्रभू, पूजत हूँ दिन-रात॥
ॐ ह्रीं अहँ चक्रपाणये नमः अर्घ्यं ॥७३६ ॥ सुभग सुरूपी श्रेष्ठ अति, जन्म धर्म अवतार। तीन लोक की लक्ष्मी, है एकत्र उदार ॥
ॐ ह्रीं अहँ पद्मनाभाय नमः अर्घ्यं ॥७३७॥