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श्री सिद्धचक्र विधान
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स्वयं विभव के हो धनी, स्वयं ज्योति परकास। स्वयं ज्ञान दृग वीर्य सुख, स्वयं सुभाव विलास।
ॐ ह्रीं अहँ स्वयंभुवे नमः अर्घ्यं ॥७२२॥ धर्म भारधर धरिणी, हो जिनेन्द्र भगवान। तुमको पूजों भावसों, पाऊँ पद निर्वाण॥
ॐ ह्रीं अर्ह विश्वम्भराय नमः अर्घ्यं ॥७२३ ॥ असुर काम अर हास्य इन, आदि कियो विध्वंश। महा श्रेष्ठ तुमको नमू, रहै न अघ को अंश।
ॐ ह्रीं अहँ असुरध्वंसिने नमः अर्घ्यं ॥७२४॥ सुधाधार द्यो अमरपद, धर्म फूल की बेल। शुभ मति गोपिन संग में, हमें राख निज गेल॥
... ॐ ह्रीं अहँ माधवाय नमः अर्घ्यं ।।७२५ ॥ विषय कषाय स्व वश करी, बलि वश कियो जु काम। महाबली परसिद्ध हो, तुमपद करूँ प्रणाम ॥
, ॐ ह्रीं अहँ बलिबन्धनाय नमः अर्घ्यं ।।७२६ ॥ तीन लोक भगवान हो, निज पर के हितकार। सुरनर पशु पूजत सदा, भक्ति भाव उर धार॥
ह्रीं अर्ह अधोक्षजाय नमः अयं ॥७२७॥ हितमित मिष्ट प्रिय वचन, अमृत सम सुखदाय। धर्म मोक्ष परगट करन, बन्दूं तिनके पाय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ हितमितप्रियवचनजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७२८॥ निज लीला में मगन हैं, साँचा कृष्ण सु नाम। तीन खण्ड तिहुँलोक के, नाम करूँ परणाम॥
ॐ ह्रीं अहँ केशवाय नमः अर्घ्यं ।।७२९ ॥