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श्री सिद्धचक्र-विधान
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सुरनर मानें आन सब, तुम आज्ञा शिर धार। मानो तन्त्र विधान करि, बान्धे एक लगार॥
ॐ ह्रीं अहं तन्त्रकृते नमः अध्यं ॥३८६ ॥ जाकरि निश्चय कीजिए, वस्तु प्रमेय अपार। सो तुम से परगट भयो, न्याय शास्त्र रुचि धार॥
ॐ ह्रीं अहं न्यायशास्त्रकृते नमः अयं ॥३८७॥ गुण अनन्त पर्याय युत, द्रव्य अनन्तानन्त। युगपत जानो श्रेष्ठ युत, धरो महा सुखवन्त॥
ॐ ह्रीं अहँ महाज्येष्ठाय नमः अयं ॥३८८॥ तुम पद पावै सो महा, तुम गुण पार लहाय। शिवलक्ष्मी के नाथ हो, पूनँ तिनके पाँय॥ . ॐ ह्रीं अहँ महानन्दाय नमः अयं ॥३८९॥ 'तुम सम कविकर जगत में, और न दूजो कोय।
गणधर से श्रुतकार भी, अर्थ लहैं नहीं सोय॥ __.. ॐ ह्रीं अहँ कवीन्द्राय नमः अयं ॥३९०॥ हित करता षट् काय के, महा इष्ट-तुम बैन। तुम को बन्दू भावसों, मोक्ष महासुख दैन।
ॐ ह्रीं अहं महेष्टाय नमः अयं ॥३९१॥ मोक्ष दान दातार हो, तुम सम कौन महान। तीनलोक तुम को जजैं, मन में आनन्द ठान॥
ॐ ह्रीं अर्ह महानन्ददात्रे नमः अयं ॥३९२॥ द्वादशांग श्रुत को रचैं, गणधर से कविराज। तुम आज्ञा शिर धार के, नमूं निजातम काज॥
ॐ ह्रीं अर्ह कवीश्वराय नमः अयं ॥३९३ ॥