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श्री सिद्धचक्र विधान
निज पुरुषारथ साध के, सिद्ध भये सुखकार। मन-वच-तन करि मैं नमूं, करो जगत से पार॥
ॐ ह्रीं अहं सिद्धाय नमः अयं ॥३७८ ॥ सिद्ध करै निज अर्थ को, तुम शासन हितकार। भविजन मार्ने सरदहैं, करै कर्म रज छार॥
ॐ ह्रीं अर्ह सिद्धशासनाय नमः अयं ॥३७९ ॥ तीन लोक में सिद्ध है, तुम प्रसिद्ध सिद्धान्त। अनेकान्त परकाश कर, नाशै मिथ्या ध्वान्त॥ ___ ॐ ह्रीं अहं जगत्प्रसिद्धसिद्धांताय नमः अयं ॥३८०॥ . ओंकार यह मन्त्र है, तीन लोक परसिद्ध। तुम साधक कहलात हो, जपत मिलैं नवनिद्ध।
ॐ ह्रीं अर्ह सिद्धमन्त्राय नमः अध्यं ॥३८१॥ सिद्ध यज्ञ को कहत है, संशय विभ्रम नाश। मोक्षमार्ग में ले धरै, निजानन्द परकाश ॥ . ॐ ह्रीं अर्ह सिद्धवाचे नमः अय॑ ॥३८२॥ मोहरूप मलसो दुरी, वाणी कही पवित्र। भव्य स्वच्छता धारि के, लहैं मोक्षपद तत्र॥
___ॐ ह्रीं अहं शुचिवाचे नमः अयं ॥३८३ ॥ कर्ण विषय होत ही, करै आत्म-कल्याण। तुम वाणी शुचिता धरै, नमें सन्त धरि ध्यान॥
ॐ ह्रीं अहँ शुचिश्रवसे नमः अध्यं ॥३८४॥ वचन अगोचर पद धरो, कहते पण्डित लोग। तुम महिमा तुम ही विषे, सदा बन्दने योग्य॥ ___ ॐ ह्रीं अर्ह निरुक्तोक्ताय नमः अयं ॥३८५ ॥