________________
श्री सिद्धचक्र विधान
[२४७
जो संसार-समुद्र से, पार करत सो धर्म। तुम उपदेश्या धर्मकू, नमत मिटै भव भर्म॥
ॐ ह्रीं अहं धर्मशासनकाय नमः अध्यं ॥३७० ॥ धर्म रूप उपदेश है, भवि जीवन हितकार। मैं बन्दूं तिन को सदा, करो भवार्णव पार॥
ॐ ह्रीं अहं धर्मदेशकाय नमः अध्यं ॥३७१ ॥ सब विद्या के ईश हो, पूरन ज्ञान सु जान। तिन को बन्दूं भाव से, पाऊँ ज्ञान महान॥
ॐ ह्रीं अहँ वागीश्वराय नमः अध्यं ॥३७२॥ सुमति नार भरतार हो, कुमति कुसौत विडार। मैं पूजू हूँ भावसों, पाऊँ सुमति सारं॥
... ॐ ह्रीं अहं त्रयीनाथाय नमः अध्यं ॥३७३॥ धर्म अर्थ अरु मोक्ष के, हो दाता भगवान। मैं नित प्रति पाइन परूँ, देहु परम कल्याण॥
ॐ ह्रीं अहं त्रिभङ्गीशाय नमः अयं ॥३७४॥ गिरा कहैं जिन वचन को, तिसका अन्त सुधर्म। मोक्ष करै भविजनन को, नाशै मिथ्या भर्म ॥
ॐ हीं अहं गिरापतये नमः अयं ॥३७५ ॥ जाकी सीमा मोक्ष है, पूरण सुख स्थान। शरणागत को सिद्ध है, नमूं सिद्ध धरि ध्यान॥
- ॐ ह्रीं अहं सिद्धाङ्गाय नमः अयं ॥३७६ ॥ नय प्रमाणसों सिद्ध है, तुम वाणी रवि सार। मिथ्या तिमिर निवारकैं, करै भव्य जन पार॥
ॐ ह्रीं अहं सिद्धवाङ्मयाय नमः अयं ॥३७७ ॥