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श्री सिद्धचक्र विधान
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अनन्त गुणातम रूप कहाय, गुणी गुण भेद सदा प्रणमाय । महागुण स्वच्छमयी तुम रूप, नमूं तिनको पद पाइ अनूप ॥
ॐ ह्रीं अनन्तगुणस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ १६८ ॥ अभेद सुभेद अनेक सु एक, धरो इन आनिक धर्म अनेक । विरोधितभावनसों अविरुद्ध, नमूंजिन आगमकीविधिशुद्ध ॥
ॐ ह्रीं अनन्तधर्मात्मकाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ १६९ ॥ रहैं धर्मी नित धर्म सरूप, न हो परदेशनसों अणुरूप । चिदातम धर्म सभी निजरूप, धरों प्रणमूँ मन भक्ति स्वरूप ॥ ॐ ह्रीं अनन्तधर्मस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ १७० ॥
चौपाई
हीनाधिक नहीं भाव विशेष, आतमीक आनन्द हमेश | सम स्वभाव सोई सुखराज, प्रणमूं सिद्ध मिटैं भववास ॥ ॐ ह्रीं समस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ १७१ ॥ इष्टानिष्ट मिटो भ्रम जाल, पायो निज आनन्द विशाल । साम्य सुधारस को नित भोग, नमूं सिद्ध सन्तुष्ट मनोग ॥ ॐ ह्रीं सन्तुष्टाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ १७२ ॥
पर पदार्थ की इच्छुक नाहि, सदा सुखी स्वातम पदमाहिं । मेटो सकल राग अरु दोष, प्रणमूं राजत सम सन्तोष ॥ ॐ ह्रीं समसन्तोषाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ १७३ ॥ मोह उदय सब भाव नसाय, मेटो पुद्गलीक पर्याय । शुद्ध निरञ्जन समगुण लहों, नमूं सिद्ध परकृत दुःख दहों ॥ ॐ ह्रीं साम्यगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१७४॥