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श्री सिद्धचक्र विधान
निजपदसों थिरता नहीं तर्जें, स्वानुभूत अनुभव नित भजैं। निराबाध तिष्ठं अविकार, साम्य स्थायी गुण भण्डार॥
ॐ ह्रीं साम्यस्थाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१७५॥ भव सम्बन्धी काज निवार, अचल रूप तिष्ठं समधार। कृत्याकृत्य साम्य गुणपाइयो, भक्ति सहित हम सिरनाइयो। ॐ ह्रीं अनन्यशरणाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१७६ ॥
छन्द झूलना भूल नहीं भय करें क्षोभ नाहीं धरै,
गैर की आस की त्रास नाहीं धरैं। शरण काकी चहैं सबन को शरण हैं,
अन्य की शरण बिन नमूं ताही वरै॥ ॐ ह्रीं अनन्यशरणाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१७७॥ द्रव्य षट् में नहीं आप गुण आप ही,
. आप में राजते सहज नीको सही। स्वगुण अस्तित्वता वस्तु की वस्तुता,
धरत हो मैं नमूं आप ही को स्वता॥ ॐ हीं अनन्यगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१७८ ॥ गैर से गैर हो आप में रमाइयो,
स्वचतुष्टय खेत में वास तिन पाइयो। धर्म समुदाय हो परमपद पाइयो,
मैं तुमैं भक्तियुत शीश निज नाइयो॥ - ॐ ह्रीं अनन्यधर्माय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१७९ ॥