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श्री सिद्धचक्र विधान
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स्वयं स्व आतम रस लहो, ताही कहिये भोग। अन्य कुपरिणति त्यागियो, नमूं पदाम्बुज योग।
ॐ ह्रीं अर्ह भोगराजाय नमः अयं ७८६ ॥ दर्शन ज्ञान सुभाव धरि, ताही के हो स्वाम। सब मलीनता त्यागियो, भये शुद्ध परिणाम॥
ॐ ह्रीं अहँ दर्शनज्ञानचारित्रात्मजिनाय नमः अयं ॥७८७॥ सत्य उचित शुभ न्याय में, है आनन्द विशेख। सब कुनीति को नाश कर, सर्व जीव सुख देख॥
ॐ ह्रीं अहं भूतानन्दाय नमः अयं ।७८८॥ पर पदार्थ के संग से, दुःखित होत सब जीव। ताके भयसों भय रहित, भोगें मोक्ष सदीव॥
ॐ ह्रीं अहँ सिद्धिकान्तजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७८९ ॥ जाको कभी न नाश हो, सो पायो आनन्द। अचलरूप निज आत्ममय, भाव अभावी द्वन्द॥ __ ॐ ह्रीं अहँ अक्षयानन्दाय नमः अयं ७९०॥ शिव मारग परगट कियो, दोष रहित वरताय। दिव्यध्वनि करि गर्ज सम, सर्व अर्थ दिखलाय॥
___ॐ ह्रीं अहँ बृहतांपतये नमः अयं ॥७९१ ॥ ..
. चौपाई छन्द हितकारक अपूर्व उपदेश, तुम सम और नहीं देवेश। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अपूर्वदेवोपदेष्ट्रे नमः अर्घ्यं ॥७९२॥