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श्री सिद्धचक्र विधान
कर्म विर्षे संस्कार विधान, तीन लोक में विस्तर जान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
___ ॐ ह्रीं अहँ सिद्धसमूहेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥७९३॥ धर्म उपदेश देत सुखकार, महाबुद्ध तुम हो अवतार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ शुद्धबुद्धाय नमः अर्घ्यं ॥७९४॥ . तीनलोक में हो शशि सूर, निज कर्णावलि करि तम चूर। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ तमोभेदिने नमः अर्घ्यं ७९५ ॥ धर्ममार्ग उद्योत करान, सब कुवाद की करि हो हान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ धर्ममार्गदर्शकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७९६॥ सर्व शास्त्र मिथ्या वा साँच, तुम निज दृष्टि लियो है जाँच। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह सर्वशास्त्रनिर्णायकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७९७ ॥ पञ्चमगति बिन श्रेष्ठन और, सो तुम पाय त्रिजग शिर मौर। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ पञ्चमगतिजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७९८ ॥ श्रेष्ठ सुमति तुमहीं हो एक, शिवमारग की जानो टेक। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ श्रेष्ठसुमतिदात्रीजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७९९ ॥ वृष मर्जाद भली विधि थाप, भविजन मेटो सब सन्ताप। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ सुगताय नमः अयं ॥८०० ।।