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श्री सिद्धचक्र विधान
भव तप-हर हो चन्द्रमा, शीतलकार कपूर। तुम को जो नर सेवते, पाप कर्म हो दूर॥ ..
ह्रीं अहँ शुभ्रांशवे नमः अध्यं ॥७७८॥ स्वर्गादिक लक्ष्मी, तासों भी जु ग्लान। स्व पद में आनन्द है, तीन लोक भगवान ॥
ॐ ह्रीं अर्ह सौम्यभावरताय नमः अयं ॥७७९ ॥ पर पदार्थ को इष्ट लखि, होत नहीं अभिमान। हो अबन्ध इस कर्मतें, स्व आनन्द निधान॥
ॐ ह्रीं अहँ कुमुदबांधवाय नमः अध्यं ॥७८०॥ सब विभाव को त्याग करि, हैं स्वधर्म में लीन। तातें प्रभुता पाइयो, हैं नहिं बन्धाधीन ॥
ॐ ह्रीं अर्ह धर्मरतये नमः अयं ॥७८१॥ आकुलता नहीं लेश है, नहीं रहै चित भंग। सदा सुखी तिहुँलोक में, चरण नमूं सब अंग॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ आकुलतारहितजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७८२ ॥ शुभ परिणति प्रगटाय के, दियो स्वर्ग को दान। धर्म ध्यान तुम से चले, सुमिरत हो शुभ ध्यान ॥
ॐ ह्रीं अहँ पुण्यजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७८३ ॥ भविजन करत पवित्र अति, पाप मैल प्रक्षाल। ईश्वर हो परमातमा, नमूं चरण निज भाल॥
ॐ ह्रीं अहँ पुण्यजिनेश्वराय नमः अयं ॥७८४॥ श्रावक या मुनिराज हो, धर्म आप से होय। धर्मराज शुभ नीति करि, उन्मार्गन को खोय॥
ॐ ह्रीं अहँ धर्मराजाय नमः अयं ॥७८५ ॥