________________
६६]
श्री सिद्धचक्र विधान
संरम्भ अकारित लोभ देह, निज आतम रत स्वयमेव तेह। धारक सिद्धान को धरूँ ध्यान, तुम मेटो मेरो सब अज्ञान॥
ॐ ह्रीं अकारितकायलोभसंरम्भस्वसमरताय नमः अयं ॥१२३॥ . संरम्भ लोभी हर्ष नाश, नमि व्यक्त धर्म केवल प्रकाश। धारक सिद्धन को धरूँ ध्यान, तुम मेटो मेरो सब अज्ञान॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायलोभसंरम्भव्यक्तधर्माय नमः अयं ॥१२४ ॥
सोरठा . लोभी योग शरीर, समारम्भ विधि नाशकें। ध्रुव आनन्द अतीव, पायो पूर्जे सिद्धपद। ॐ ह्रीं अकृतकायलोभसमारम्भनित्यसुखाय नमः अर्घ्यं ॥१२५ ।। लोभ अकारित काय, समारम्भ निज कर्म हनि। पायो पद अकषाय, सिद्ध-वर्ग पूर्णां सदा॥ ॐ ह्रीं अकारितकायलोभसमारम्भअकषाय नमः अयं ॥१२६ ॥ पूर्ववर्त आनन्द, परिग्रह इच्छा मेटिकें । पायो शौच स्वच्छन्द, न, सिद्धपद भक्ति युत॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायलोभसमारम्भशौचगुणाय नमः अयं ॥१२७॥
दोहा काय द्वार आरम्भ को, लोभ उदय विधि नाश। नमों चिदातम पद लियो, शुद्ध ज्ञान प्रकाश।
ॐ ह्रीं अकृतकायलोभारम्भचिदात्मने नमः अध्यं ॥१२८॥ काय द्वार आरम्भ विधि, लोभ उदय न कराय। निज अवलम्बित पद लियो, नमूं सदा तिन पाय॥ ॐ ह्रीं अकारितकायलोभारम्भनिरालंबाय नमः अध्यं ॥१२९ ॥