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श्री सिद्धचक्र विधान
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समारम्भ माया सहित, अकत तन विच्छेद । बन्ध दशा निज पर द्विविधि, नमत सरौं भव खेद ॥ ॐ ह्रीं अकृतकायमायासमारम्भभवछेदकाय नमः अर्घ्यं ॥ ११६ ॥ समारम्भ तन कुटिलसों, भए अकारित स्वामि । निज परिणतिसों परणये, गुण स्वातन्त्र नमामि ॥ ॐ ह्रीं अकारितकायमायासमारम्भस्वतन्त्रधर्माय नमः अर्घ्यं ॥११७॥ नानुमोदी तन कुटिलता, समारम्भ विधि देव । गुण अनन्त युत परिणमूँ, धर्म समूही एव ॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायमायासमारम्भधर्मसमूहाय नमः अर्घ्यं ॥ ११८ ॥ मायायुत निज देहसों, नहीं आरम्भ करेह । परमातम सुख छय बिना, पायो बन्दूं तेह ॥ ॐ ह्रीं अकृतकायमायारम्भपरमात्मसुखाय नमः अर्घ्यं ॥ ११९ ॥ मायारम्भ शरीर करि, परसों नहीं करान । निष्ठातम स्वस्थित नमूं, सिद्धराज गुणखान ॥ ॐ ह्रीं अकारितकायमायारम्भनिष्ठात्मने नमः अर्घ्यं ॥ १२० ॥ मायारम्भ शरीरसों, नानुमोद भगवन्त । दर्शज्ञानमय चेतना, सहित नमें नित सन्त ॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायमायारम्भचेतनाय नमः अर्घ्यं ॥१२१ । पद्धड़ि छन्द संरम्भ चाह नहिं काययोग, चित परिणति नमि शुद्धपयोग । धारक सिद्धन को धरूँ ध्यान, तुम मेटो मेरो सब अज्ञान ॥ ॐ ह्रीं अकृतकायलोभसंरम्भपरमचितपरिणताय नमः अर्घ्यं ॥ १२२ ॥