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श्री सिद्धचक्र विधान
समारम्भ मय विधि सहित, तनसों हर्ष न होय। निजानन्द नन्दित तिन्हैं, नमूं सदा मद खोय॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमानकायसमारम्भस्वनन्दिताय नमः अयं ॥१०९॥
चौपाई . . अकृत मानारम्भ शरीर, पर अनिन्द्य बन्दू धर धीर। सिद्ध बसें जु लोक के अन्त, नमों करौ हमरी भव अन्त॥ _ॐ ह्रीं अकृतमानकायारम्भसन्तोषाय नमः अयं ॥११० ॥ कायारम्भ अकारित मान, स्वस्वरूपरत बन्दूं तान। सिद्ध बसें जु लोक के अन्त, नमों करौ हमरी भव अन्त॥
ॐ ह्रीं अकारितमानकायारम्भस्वरूपरताय नमः अयं ॥१११॥ . मानारम्भ आनन्दित काय, प्रणमूं विमल शुद्ध पर्याय। शुद्ध आत्मा त्रय जग ईश, तिनको सदा नवाऊँ शीश॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमानकायारम्भशुद्धपर्यायाय नमः अर्घ्यं ॥११२॥
दोहा मायायुत संरम्भ विधि, तनसों करत न आप। गुप्त निजामृत रस लहैं, नमूं तिन्हैं तज पाप॥ ॐ ह्रीं अकृतकायमायासंरम्भअमृतगर्भाय नमः अयं ॥११३॥ मायायुत संरम्भ विधि, तनसों नहीं कराय। मुख्य धर्म चैतन्यता, विनवै प्रणमूं पाय॥ ॐ ह्रीं अकारितकायमायासंरम्भचैतन्याय नमः अयं ॥११४॥ मायायुत संरम्भ मय, नानुमोद युत काय। वीतराग आनन्द पद, समरस भावन भाय॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायमायासंरम्भसमरसीमावाय नमः अयं ॥११५ ॥