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श्री सिद्धचक्र विधान
एकहि बार लखाय अभेदा, दर्शन को सब रोग विछेदा। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥
ॐ ह्रीं साधुदर्शनाय नमः अध्य॑ ।।४०७॥ आपहि साधन साध्य तुम्ही हो, एक अनेक अभेद तुम्ही हो। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥
ॐ ह्रीं साधुद्रव्यभावाय नमः अध्यं ॥४०८॥ चेतनता निज भाव न छारै, रूप स्पर्शन आदि धारै। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥
ॐ ह्रीं साधुद्रव्यस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ४०९॥ जो उतपाद भयो इकबारा, सो निरबार रहै अविकारा। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥
ॐ ह्रीं साधुवीर्याय नमः अयं ॥४१०॥ है परिनाम अभिन्न प्रणामी, सो तुम सोध भये शिवगामी। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥
ॐ हीं साधुद्रव्यपर्याय नमः अर्घ्यं ॥४११॥ . जो गुण वा परियाय धरो हो, सो निज माहीं अभिन्न धरो हो। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥
ॐ ह्रीं साधुद्रव्यगुणपर्यायाय नमः अयं ॥४१२॥ मंगलमय तुम नाम कहावै, लेतहि नाम सु पाप नसावै। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥
ॐ ह्रीं साधुमङ्गलाय नमः अयं ॥४१३॥ . मंगल रूप अनूपम सोहै, ध्यान किये नित आनन्द हो है। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥
ॐ ह्रीं साधुमङ्गलस्वरूपाय नमः अयं ॥४१४॥