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श्री सिद्धचक्र विधान
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जितने शुभ लक्षण कहे, तुममें हैं एकत्र। तुमको बन्दू भावसों, हरो पाप सर्वत्र॥ ___ॐ ह्रीं अहँ चतुरशीतिलक्षणाय नमः अर्घ्यं ॥९२८॥ तुम लक्षण सूक्षम महा, इन्द्रिय विषय अतीत। वचन अगोचर गुण धरो, निगुन कहैं सुनीत॥
ॐ ह्रीं अहँ अगुणाय नमः अर्घ्यं ॥९२९ ॥ अगुरु लघु पर्याय के, भेद अनन्तानन्त । गुण अनन्त परिणामकरि, नित्य नमें तुम सन्त॥ . ॐ ह्रीं अहँ अनन्तानन्तपर्याय नमः अर्घ्यं ॥९३०॥ . राग-द्वेष के नाशते, नहीं पूर्व संस्कार।
निज सुभाव में थिर रहैं, अन्य वासना टार॥ ... ॐ ह्रीं अहँ पूर्वसंस्कारनाशकाय नमः अर्घ्यं ॥९३१॥
गुण चतुष्ट में वृद्धता, भई अनन्तानन्त । तुमसम और न जगत में, सदा रहो जयवन्त॥ ___ॐ ह्रीं अहँ अनन्तचतुष्टयवृद्धाय नमः अर्घ्यं ॥९३२ ॥ आर्ष कथित उत्तम वचन, धर्म मार्ग अरहन्त। सो सब नाम कहो तुम्हीं, शिवमारग के सन्त॥ _ॐ ह्रीं अहँ प्रियवचना नमः अर्घ्यं ॥९३३ ॥ महाबुद्धि के धाम हो, सूक्षम शुद्ध अवाच्य। चार ज्ञान नहिं गम्य हो, वस्तुरूप सो साच्य॥
. ॐ ह्रीं अहँ नीरवचनीयाय नमः अर्घ्यं ॥९३४॥ सूक्षमतें सूक्षम वि., तुमको है परवेश। आपै सूक्षमरूप हो, राजत निज परदेश॥
. ॐ ह्रीं अर्ह अणीयशे नमः अर्घ्यं ॥९३५ ॥