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श्री सिद्धचक्र विधान
कर्म प्रबन्ध सुघन-पटल, ताकी छाँय निवार। रवि वन ज्योति प्रगट भई, पूरणता विधि धार॥
ॐ ह्रीं अहँ अनणुपर्याय नमः अर्घ्यं ॥९३६ ॥ निज प्रदेश में थिर सदा, योग निमित निवार। अचल शिवालय के वि, तिष्ठं सिद्ध अपार ॥
ॐ ह्रीं अर्ह स्थेयसे नमः अर्घ्यं ॥९३७॥ . सन्त नमन प्रिय हो अती, सज्जन वल्लभ जान। मुनि जन मन प्यारे सही, नमत होत कल्याण ॥
ॐ ह्रीं अहँ प्रेष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥९३८॥ काल अनन्तानन्त लौं, करें शिवालय पास। अव्यय अविनाशी सुथिर, स्वयं जोति परकाश॥
ॐ ह्रीं अहँ स्थिरजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९३९ । स्वै.आतम में वास है, रुलत नहीं संसार। ज्यों के त्यों निश्चल सदा, बन्दत भव दधि पार॥
ॐ ह्रीं अहँ निजात्मतत्वनिष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥९४० ॥ सुभग सरावन योग्य हैं, उत्तम भाव धराय। तीनलोक में सार है, मुनिजन वन्दित पाय॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ श्रेष्ठभावधारकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९४१॥ सब के अग्रेसर भये, सब के हो सिरताज। तुम से बड़ा न और है, सब के कर हो काज॥
ॐ ह्रीं अहँ जेष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥९४२॥ स्वप्रदेश निष्कम्प हैं, द्रव्य भाव विधि नाश। इष्टानिष्ट निमित धरै, निज आनन्द विलास॥
ॐ ह्रीं अहँ निष्कंपप्रदेशजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९४३ ॥