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श्री सिद्धचक्र विधान
इन्द्री मन के सब विषय, त्याग दिये इक लार। निजानन्द में मगन हैं, छाँड़ो जग व्यापार ॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ विश्वाकाररसाकुजिताय नमः अयं ॥९२०॥ पर सम्बन्धी प्राण बिन, निज प्राणनि आधार। सदा रहै जीतव्यता, जरा मृत्यु को टार ॥
ॐ ह्रीं अहँ सदाजीविते नमः अर्घ्यं ॥९२१॥ निज रस के सागर धनी, महाप्रिय स्वादिष्ट। अमर रूप राजै सदा, सुर मुनि के हो इष्ट ॥
ॐ ह्रीं अहँ अमृताय नमः अर्घ्यं ॥९२२॥ . . पूरण निज आनन्द में, सदा जागते आप। नहिं प्रमाद में लिप्त हैं, पूजत विनशे पाप॥
ॐ ह्रीं अहँ जाग्रते नमः अर्घ्यं ॥९२३॥ क्षीण ज्ञान ज्ञानावरण, करै जीव को नित्य। सो आवर्ण विनाशियो, रहो अस्वप्न सुवित्य॥ .. ॐ ह्रीं अर्ह असुप्ताय नमः अर्घ्यं ॥९२४॥ स्व प्रमाण में थिर सदा, स्वयं चतुष्टय सत्य। निराबाध निर्भय सुखी, त्यागत भाव असत्य॥
ॐ ह्रीं अहँ स्वप्रमाणस्थिताय नमः अर्घ्यं ॥९२५॥ श्रम करि नहिं आकुलित हो, सदा रहो निरखेद। स्वस्थरूप राजो सदा, वेदो ज्ञान अभेद॥
ॐ ह्रीं अहं निराकुलितजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९२६ ।। मन-वच-तन व्यापार था, तावत रहो शरीर। ताको नाश अकम्प हो, बन्दूं मन धर धीर॥
ॐ ह्रीं अर्ह अयोगिने नमः अर्घ्यं ॥९२७॥