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श्री सिद्धचक्र विधान
पुण्य पाप सुर अहं कत्रै न, अचल सहित काज
रक्षक हो षट् काय के, कर्म शत्रु क्षयकार। विजय लक्ष्मी नाथ हो, मैं पूजू सुखकार ॥
ॐ ह्रीं अहँ जिष्णवे नमः अध्यं ॥४४२॥ कर्ता हो विधि कर्म के, हरता पाप विशेष। . पुण्य पाप सु विभाग कर, भ्रम नहीं राखो लेश॥
ॐ ह्रीं अहँ कत्रे नमः अयं ॥४४३॥ . स्वानन्द ज्ञान विनाश बिन, अचल सुथिर रहैं राज। अविनाशी अविकार हो, बन्दूं निज हित काज॥ __ॐ ह्रीं अहँ अविनश्वराय नमः अयं ॥४४४॥ इन्द्रादिक पूजित चरन, महा भक्ति उर धार। तुम महान ऐश्वर्य को, धारत हो अधिकार॥
ॐ ह्रीं अहँ प्रभविष्णवे नमः अयं ॥४४५॥ गुण समूह गुरुता धरै, महा भाग सुख रूप। .. तीन लोक कल्याण कर, पूजूं हूँ शिव भूप॥
ॐ ह्रीं अहं भ्राजिष्णवे नमः अयं ।।४४६॥ महा विभव को धरत हैं, हितकारण मितकार। धर्मनाथ परमेश हो, पूजत हूँ सुखकार ॥
ॐ ह्रीं अहँ प्रभुष्णवे नमः अर्घ्यं ॥४७॥ बिन कारण असहाय हो, स्वयं प्रभा अविरुद्ध। तुम को बन्दू भावसों, निज आतम कर शुद्ध॥
____ॐ ह्रीं अहँ स्वयंप्रभाय नमः अयं ॥४४८॥ लोकवास को नास कर, लोक सम्बन्ध निवार। अचल विराजै शिवपुरी, पूजत हूँ उर धार॥
ॐ ह्रीं अहं लोकजिते नमः अर्घ्यं ।।४४९ ॥