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श्री सिद्धचक्र विधान
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ऊरध अधो सु मध्य है, तीन भाग यह लोक। तिन में तुम उत्कृष्ट हो, तुम्हें देत नित धोक॥
ॐ हीं अहं त्रिलोकनाथाय नमः अध्यं ॥४३४॥ तुम समान समरथ नहीं, तीन लोक में और। स्वयं शिवालय राजते, स्वामी हो शिरमौर॥
ॐ ह्रीं अर्ह लोकेशाय नमः अयं ॥४३५॥ जगत नाथ जग ईश हो, जगपति पूजें पाय। मैं पूजू नित भाव युत, तारण-तरण सहाय॥
ॐ ह्रीं अहं जगन्नाथाय नमः अयं ॥४३६॥ महा भूति इस जगत में, धारत हो निरभंग। सब विभूति जग जीतिकैं, पायो सुख सरबंग॥
ॐ ह्रीं अहं जगत्प्रभवे नमः अयं ॥४३७॥ मुनि मन.करण पवित्र हो, सब विभाव को नाश। तुम को अंजुलि जोर कर, नमूं होत अघ नाश। - ॐ ह्रीं अहं पवित्राय नमः अयं ॥४३८॥ मोक्ष रूप परधान हो, ब्रह्म ज्ञान परवीन। बन्ध रहित शिवसुख सहित, नमें सन्त आधीन॥
_ॐ ह्रीं अहं पराक्रमाय नमः अयं ॥४३९॥ जामें जन्म-मरण नहीं, लोकोत्तर कियो वास। अचल सुथिर राजै सदा, निजानन्द परकाश॥
ॐ ह्रीं अहं परतराय नमः अयं ॥४४० ॥ मोहादिक रिपु जीति के, विजयवन्त कहलाय। जैत्र नाम परसिद्ध है, बन्दूं तिनके पाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह जैत्रे नमः अयं ॥४४१॥