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घट-घट में राजो सदा, ज्ञान द्वार सब ठौर। विश्व रूप जीवात्म हो, तीनलोक सिरमौर॥
ॐ ह्रीं अहं विश्वरूपात्मने नमः अर्घ्यं ॥१८६ ॥ घट-घट में नित व्याप्त हो, ज्यों घर दीपक जोति। विश्वनाथ तुम नाश है, पूजत शिवसुख होत॥
ॐ ह्रीं अहँ विश्वात्मने नमः अयं ॥१८७॥ इन्द्रादिक जे विश्वपति, तुम पद पू0 आन। यातें मुखिया हो सही, मैं पूनँ धरि ध्यान॥
___ ॐ ह्रीं अहँ विश्वतोमुखाय नमः अर्घ्यं ॥१८८॥ ज्ञान द्वार सब जगत में, व्यापि रहे भगवान। . विश्व व्यापि मुनि कहत हैं, ज्यूँ नभ में शशि भान॥
___ॐ ह्रीं अहँ विश्वव्यापिने नमः अर्घ्यं ॥१८९॥ निरावरण निरलेप हैं, तेज रूप विख्यात। ज्ञान कला पूरण धरै, मैं बन्दूं दिन-रात॥
ॐ ह्रीं अर्ह स्वयंज्योतिषे नमः अर्घ्यं ॥१९०॥ चिन्तवन में आवें नहीं, धारै सुगुण अपार। मन-वच-काय नमूं सदा, मिटै सकल संसार॥
ॐ ह्रीं अहँ अचिंत्यात्मने नमः अर्घ्यं ॥१९१॥ नय प्रमाण को गमन नहीं, स्वयं ज्योति परकाश। अद्भुत गुण पर्याय में, सुखा करै विलास॥
___ ॐ ह्रीं अहँ अमितप्रभाय नमः अर्घ्यं ॥१९२॥ मती आदि क्रमवर्त्ति बिन, केवल लक्ष्मीनाथ। माहबोध तुम नाम है, नमूं पाय धरि माथ॥
___ॐ ह्रीं अहँ महाबोधाय नमः अर्घ्यं ॥१९३ ॥