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श्री सिद्धचक्र विधान
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तो भी यह फल पूजि फलद, अनिवार निजानन्द कर इच्छामि । द्वादश अधिक पञ्चशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८ ॥ तुमसे स्वामी के पद सेवत, यह विधि दुष्ट रङ्क कहा कर है । ज्यों मयूर ध्वनि सुनि अहिनिज बिल, विलय जाय छिन विमल न धर है ॥ तातैं तुम पद अर्घ उतारण, विरद उचारण करहुँ मुदामी । द्वादश अधिक पञ्चशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥९ ॥
गीता छन्द
निर्मल सलिल शुभवास चन्दन धवल अक्षत युत अनी । शुभ पुष्प मधुकर नित रमें चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी ॥ वर दीपमाल उजाल धूपायन रसायन फल भले । करि अर्ध सिद्ध समूह पूजत कर्मदल सब दलमले ॥ ते कर्म प्रकृति नसाय युगपति, ज्ञान निर्मल रूप हैं । दुःख जन्म टाल अपार गुण, सूक्षम सरूप अनूप हैं ॥ कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य, अदूज शिव कमलापती । मुनि ध्येय सेय अभेय चाहूँ, गेय द्यो हम शुभमती ॥ ॐ ह्रीं सिद्धचक्राधिपतये नमः समत्तणाणादि अट्ठगुणाणं पूर्णपदप्राप्तये महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।