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श्री सिद्धचक्र विधान
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लोकातीत त्रिलोक पूज्य जिन, लोकोत्तम गुणधारी। लोकशिखर सुखरूप बिराजै, तिनपद धोक हमारी॥
ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥४०॥ लोकाश्रित गुण सब विभाव हैं, श्रीजिनपदसों न्यारे। तिनको त्याग भये शिव बन्दूं, काटो बन्ध हमारे ॥
ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमगुणाय नमः अर्घ्यं ॥४१॥ मिथ्या मतिकर सहित ज्ञान, अज्ञान जगत में सारो। ता विनाशि अरहंत कहो, लोकोत्तम पूज हमारो॥
ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥४२॥ क्षायक दरशन है अरहंता, और लोक में नाहीं। सो अरहंत भये शिववासी, लोकोत्तम सुखदाई॥
___ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥४३॥ कर्मबली ने सब जग बांध्यो, ताहि हनो अरहंता। यह. अरहंत वीर्य लोकोत्तम, पायो सिद्ध अनंता॥
. ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमवीर्याय नमः अर्घ्यं ॥४४॥ अक्ष अतीत ज्ञान लोकोत्तम, परमातम पद मूला। सो अरहंत नमूं शिवनाइक, पाऊँ भवदधि कू ला॥
ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमाभिनिबोधकाय नमः अर्घ्यं ॥४५॥ परमावधि ज्ञानी सुखखानी, केवलज्ञान प्रकाशी। यहै अवधि अरहंत नमूं मैं, संशय तमको नाशी॥
ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमअवधिज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥४६॥ जो अरहंत धरै मनपर्यय, सो केवल के माहीं। साक्षात् शिवरूप नमो मैं, अन्य लोक में नाहीं॥
ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तममनःपर्ययज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥४७॥