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श्री सिद्धचक्र विधान
जा बिन और अज्ञान सकल, जग कारण बन्ध प्रधाना। नमूं पाइ अरहन्त मुक्ति पद, मंगल के वलज्ञाना॥
ॐ ह्रीं अरहन्मंगलकेवलज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥३२॥ निरावरण निरखेद निरन्तर, निराबाधमई राजै। के वलरूप नमूं सब अघहर, श्री अरहन्त बिराजै ॥
___ॐ ह्रीं अरहन्मंगलकेवलस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३३॥ चक्षु आदि सब भेद विघन हर, क्षायक दर्शन पाया। श्री अरहन्त नमूं शिववासी, इह जग पाप नशाया॥
ॐ ह्रीं अरहन्मंगलकेवलदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥३४॥ जग मंगल सब विघन रूप है, इक केवल अरहन्ता। मंगलमय सब मंगलदायक, नमूं कियो जग अन्ता॥
ॐ ह्रीं अरहन्मंगलकेवलाय नमः अर्घ्यं ॥३५॥ के वलरूप महामंगलमय, परम शत्रु छ यकारा। सो अरहन्त सिद्ध पद पायो, नमूं पाय भवपारा॥
ॐ ह्रीं अरहन्मंगलकेवलरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३६॥ शुद्धातम निजधर्म प्रकाशी, परमानन्द बिराजै । सो अरहन्त परम मंगलमय, नमूं शिवालय राजै ॥
ॐ ह्रीं अरहन्मंगलधर्माय नमः अर्घ्यं ॥३७॥ सब विभावमय विघन नाशकर, मंगल धर्म स्वरूपा। सो अरहन्त भये परमातम, नमूं त्रियोग निरूपा॥
ॐ ह्रीं अरहन्मंगलधर्मस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३८॥ सर्व जगत् सम्बन्ध विघन नहीं, उत्तम मंगल सोई। सो अरहन्त भये शिववासी, पूजत शिवसुख होई॥
ॐ ह्रीं अरहन्मंगलउत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥३९॥