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श्री सिद्धचक्र विधान
लोकालोक अनन्तवें, भाग बसो तुम आन। ये तुम सों अति भिन्न हैं, शुद्ध गर्भ यह जान ॥२२॥
ॐ ह्रीं अहँ शुद्धगर्भाय नमः अर्घ्यं ॥२२॥ लोकशिखर शुभ थान है, तथा निजातम वास। शुद्ध वास परमात्मा, नमों सुगुण की रास ॥२३॥
ॐ ह्रीं अहँ शुद्धवासाय नमः अर्घ्यं ॥२३॥.. अति विशुद्ध निज धर्म में, वसत नशत सब खेद। परम वास नमि सिद्ध को, वासी वास अभेद ॥२४॥
ॐ ह्रीं अर्ह विशुद्धपरमवासाय नमः अर्घ्यं ॥२४॥ बहिरन्तर द्वै विधि रहित, परमातम पद पाय। . निरविकार परमात्मा, नमूं नमूं सुखदाय॥२५॥
. ॐ ह्रीं अहँ शुद्धपरमात्मने नमः अर्घ्यं ॥२५॥ हीन अधिक इक देशको, विकल विभाव उछेद। शुद्ध अनन्त दशा लई, नमूं सिद्ध निरभेद ॥२६॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धअनन्ताय नमः अर्घ्यं ॥२६॥
त्रोटक छन्द तुमरागविरोधविनाशकियो,निजज्ञानसुधारसस्वादलियो। तुम पूरणशान्ति विशुद्धधरो, हमकोइक देश विशुद्ध करो॥
____ॐ ह्रीं अहँ शुद्धशान्ताय नमः अर्घ्यं ॥२७॥ विद पण्डित नाम कहावत हैं विद अन्तु जु अन्तहि पावत हैं। निजज्ञान प्रकाशसुअन्तलहो, कुछ अंशनजानन माहिरहो।
ॐ ह्रीं अहँ शुद्धविदन्ताय नमः अर्घ्यं ॥२८॥